- 180 Posts
- 877 Comments
सत्याग्रह के भूत से सरकार डरी हुई है. पहले अंग्रेज सत्याग्रह से डरते थे. गाँधी जी ने खूब डराया था, अंग्रेजों को. पहले अंग्रेज सत्ताधारी थे सत्ताधारी सत्याग्रह से डरते हैं.
जब संसद या विधानसभा का सत्र चलता है,तब व्यवस्था से आक्रोशित लोग, संसद या विधानसभा के आस-पास सत्याग्रह,धरना,प्रदर्शन करने पहुच जाते है. कई झोपड़ियाँ सत्याग्रहियों की दिखने लगती है. सरकार कभी-कभी इन पर ध्यान भी देती है. लेकिन पुरे देश का मामला कोई उठता है, और पुरे देशवाशी उससे सहमत हो जाते है, तब सरकार को अपनी कुर्सी हिलती नजर आती है. अन्ना हजारे पर देशवाशियो को भरोसा है,और सरकार को अपनी कुर्सी हिलती नजर आ रही है. गाँधी जी के हथियार की धार बहुत दिनों से कुंद पड़ गई है, इस लिए सरकार निर्भय हो कर, सत्याग्रह करने से ही मना कर रही है. हलाकि ये सरकार का भ्रम है. सत्याग्रह की धार कभी कुंद नहीं होती. जितना अवरोध होगा,उतना ही तेज होगा. सत्याग्रह लोगो के मूल भावना में निहित है.
जब सारे रास्ते बंद हो जाते है, तब आमरण अनशन का रास्ता बचता है. लोकतान्त्रिक सरकार को जनभावना के अनुरूप सारे रास्ते खोल देना चाहिए, जिससे आमरण अनशन टाला जा सके.संवादहीनता लोकतंत्र में घातक है. जनता और सरकार के बीच संवाद होना चाहिए. राज नेता और लोक नेता में अंतर है. राज नेता कोई भी हो सकता है. किसी पार्टी अध्यक्ष का बेटा पार्टी का प्रमुख हो सकता है,पर लोक नेता बनाने के लिए लोगो के भावना और प्रेम की जरुरत पड़ती है.. इसके लिए अन्ना हजारे, जैसा त्याग करना पड़ता है. राजा इतिहास लिखवा कर इतिहास के गाथाओं में हो सकता है, पर लोक-गाथाओं में नहीं आ सकता है.
लोकपाल से लोगों की उम्मीदे जगी है. जनता आखिर कब तक अपनी पसीने की कमाई लुटते हुए देखेगी.स्वीश बैंक, से ले कर 2 g स्पेक्ट्रम तक किस कानून के तहत लूटा गया? और उन लुटेरों से धन वापस आया? नहीं आया तो फिर कैसे कहा जा सकता है कि लोकपाल कि जरुरत नहीं है. अब तक का इतिहास है कि शीर्ष पर बैठे लोग, चाहे सुप्रीम कोर्ट से सम्बंधित हों.या संसद से, बड़े घोटालो में नाम आता रहा है. फिर क्यों न लोकपाल के दायरे में आना चाहिए. आजादी के बाद से लूट का हिसाब लगाने पर अहसास होता है कि अपने ही लोग सोने कि चिड़िया भारत का पर क़तर दिया है.
Read Comments