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. . कार्टून स्वस्थ्य समाज का प्राण-वायु है. किसी भी योग्य समाज के निर्माण में कार्टून की अग्रणी भूमिका होती है. चूकि जिस गंभीर बात को एक किताब में लिखने में परेशानी होती है. उस बात को कार्टून की आड़ी तिरछी तस्वीरों और चंद वाक्यों के द्वारा कह देना एक बड़ी कला है. व्यंग से साराबोर कार्टून समाज को उचित मार्ग दर्शन देता है. कार्टून से समाज लाभ तभी पा सकता है, जब कार्टून समझने और सहने की समझ और ताकत समाज की हो. मुर्ख समाज के लिए कार्टून मार-पीट का विषय हो सकता है. समयानुकूल गाली भी अच्छी लगाती है. शादी-विवाह के अवसर पर औरते गालियाँ गाती हैं. कही गाली नहीं सुनने पर लड़का पक्ष लड़की पक्ष की शिकायत करता है, गाली नहीं देने के लिए. बहुत सारे इलाकों में दूल्हा के परिछावान के अवसर पर औरते दूल्हा का तमाम शिकायते करती हैं. शिकायत इतनी अधिक होती है कि कोई दुश्मन भी शरमा जाय. कहने का मतलब की आलोचना सुनने की क्षमता हो तो आलोचना शुभ होता है. कबीर दास ने कहा है, ” निंदक नियरे रखिये, आँगन कुटी छवाय. बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय.” इतनी बड़ी दृष्टिकोण पथ प्रदर्शक का होता है. नेतृत्व करता का होता है. स्वार्थी तत्वों का दृष्टिकोण संकुचित होता है.
. . कार्टून के विरोध करने वाले अपने को बाबा साहब अम्बेदकर की दुहाई दे रहे है, समर्थकों का कहना है कि इससे अम्बेदकर साहब का अपमान हुआ है. सुहास पालेकर और योगेन्द्र यादव के साथ-साथ NCERT के अधिकारीयों को इसके लिए दोषी माना गया है. इस कार्टून के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति मेरे समझ से सांसदों से तो नैतिकता और सूझ-बुझ में अव्वल ही हैं. जनता के बीच में उनका सम्मान एक सांसद से ज्यादा हैं. यह गौर करने वाली बात है की इस कार्टून का जन्म-काल 1946 हैं. उस समय के प्रख्यात कार्टूनिस्ट शंकर ने इस कार्टून को बनाया था. उस समय नेहरु जी और अम्बेदकर साहब जीवित थे. आजादी के सारे नायक जीवित थे. हम जिनकी फसल को काट-काट कर वार्बाद कर रहे हैं वे सभी देश के नायक कार्टून के रचना काल में थे. जब समय के अनुकूल कार्टून अपने रचना-काल में विवादित नहीं हुआ तो अब कौन सी नयी बात हो गई जो इसे अब विवादित बनाया जा रहा है. निश्चित ही नासमझों का कोई अलग देश नहीं होता है. निश्चित ही बाबा साहब की आत्मा अपने तथाकथित शुभचिंतकों की मुर्ख लीला से दुखित होगी.
. . शंकर को जीते जी सम्मान मिला था. आज वही शंकर मृत्यु प्राप्ति के बाद संसद में अपमानित किये जा रहे है. इस कार्टून की आलोचना करने वालों को कम से कम शंकर के व्यक्तित्व और अपने व्यक्तित्व में अंतर स्वविवेक से कर लेना चाहिए. बाबा साहब के समकक्ष शंकर की आलोचना करने वाले कही से भी बाबा साहब के समर्थक नहीं हो सकते हैं.कार्टून की आलोचना शंकर की आलोचना है. जो अपने को दलित समर्थक के नाम पर बाबा साहब का पक्ष ले रहे हैं वे बाबा साहब के विरोधी हैं. बाबा साहब पुरे देश के नायक हैं न की किसी एक वर्ग के, वर्ग में बाबा साहब को बाटने वाले बाबा साहब के समर्थक कैसे हो सकते हैं सोचने वाली बात है?
. . एक कार्टून का बहाना बना कर पुरे पाठ्य पुस्तकों से हीं कार्टून समाप्त कर देने की घोषणा कर दी गयी है. बाबा साहब के नाम पर सांसद अपनी कार्टूनों से हीं बचना चाह रहे हैं. जो भी हो, लोकतान्त्रिक देश के लिए ये तानाशाही सोच कही से स्वागत योग्य नहीं है. लोकतंत्र इस तरह के हरकतों से कमजोर होती है. बाबा साहब और देश की गरिमा के लिए ये आवश्यक है, की संसद का एक सत्र कार्टून पर ही बुलाया जाय, और भारत के गरिमा के अनुकूल इस पर निष्पक्ष चर्चा हो.पुरे देश को इस चर्चा को दिखाया जाय. या इस मुद्दे पर पुरे देश में चर्चा तो चल ही चूकि है, अब उस चर्चे की समीक्षा कर कार्टून को पुन: प्रतिष्ठित किया जाय.
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